Tuesday, August 24, 2010

खिचड़ी में किशमिश

कुछ दिन पहिले तक टीवी पर देसी घी क एगो विज्ञापन देखावल जात रहे। ओ में संदेश रहे कि जबसे फलां घी खाया गांव का स्वाद ही भूल गया। लेकिन हमरा के महसूस होला कि शहर में कुछऊ खा लीं, गांव क स्वाद हमेशा याद रही। शहर क खान-पान गांव की तुलना में कुछ साफ-सुथरा, नफासत वाला भले हो जाव, जवन खुशबू आ स्वाद गांव की खानपान में मिलेला, ऊ शहर में शायदे कहीं मिले।
तमाम तरह क मसाला, डिब्बाबंद खाना आ भोजन सामग्री बनावे वाली कंपनी अपनी विज्ञापन में दावा करत देखल जा सकेली कि उनकी उत्पाद में गांव जइसन शुद्ध स्वाद बा। घी-तेल क कारोबार करे वाली कंपनीन की अलावा अब गांव की तर्ज पर रेस्तरां, पर्यटन स्थल पर मुसाफिरन के रूके-ठहरे क बंदोबस्त वगैरह भी होखे लागल बा। माटी क देवाल आ फूस की छत वाला घर, लालटेन में बल्ब लगाके पेड़ पर लटकावे क चलन, जमीन पर बइठा के खियावे आ गांव मतिन प्यार देखावे क कोशिश खूब होखे लागल बा।
खानपान में तेल-घी, चीनी-नमक, सब्जी-मसाला वगैरह क इस्तेमाल भी सेहत क ध्यान रख के होखे लागल बा। हर जगह फैट फ्री, शुगर फ्री ईहां तक कि गठिया, वायु विकार वगैरह में लाभदायक होखे क दावा करे वाला भोजन होटल-रेस्तरां में उपलब्ध करावे जाए लागल बा। अखबार-पत्रिका में सेहत आ खानपान क स्तंभ, बल्कि लगभग हर अखबार में सप्ताह में एक दिन पूरा पन्ना ए विषय से संबंधित रहे लागल बा। लोग भी सेहत के ले के पहिले से ज्यादा सजग हो गईल बा। शहर में कुछ ज्यादा सजगता बा।
जबसे शहर में रहे लागल बानी, चाहे शुद्धता क दावा करे वाली कवनो कंपनी क खाए-पीए क सामान खरीद लीं, गांव क स्वाद कतहीं ना मीलल। उल्टा हो ई गईल बा कि होटल आ रेस्तरां की देखादेखी दाल-सब्जी में अतार्किक ढंग से सामग्री क प्रयोग होखे लागल बा। कबो-कबो कोफ्त होखे लागे ले कि बरसात में गोभी, गाजर, हरा मटर आ सर्दी में भिंडी, करेला, नेनुआ खाइल इज्जत क बात समझे जाए लागल बा। एकरी पीछे मोट बुद्धि से एगो तर्क त ई समझ में आवेला कि मौसमी सब्जी की अपेक्षा बेमौसमी सब्जी महंगा मिलेले, त लोग समझेला कि ज्यादा पइसा खर्च क के खाए पर इज्जत आ स्वास्थ्य ज्यादा बढ़ी। शहर में दिखावा आ हवाबाजिए में लोग परेशान बा। अखबारो-पत्रिका सब में एही तरह की खानपान के बढ़ावा मिले लागल बा।
आयुर्वेद में कहल गइल बा कि फल आ सब्जी मौसमी खाएके चाही। बेमौसम क सब्जी आ फल शरीर में तरह-तरह क विकार पैदा करेलन सं। लेकिन के मानत बा।
खाली एतने ना, पकावे क तरीका भी एकदम बदल गईल बा। शहर में टमाटर आ प्याज जरूरी सब्जी में शुमार हो गईल बा। चाहे दाल होखे चाहे सब्जी, सलाद होखे चाहे चटनी, टमाटर त होखहीं के चाही। लौकी-कोहंड़ा, नेनुआ-करेला-भिंडी में भी टमाटर। गांव में त कबो ना खाएके मिलल। टमाटर जाड़ा क सब्जी ह। ओ समय एकर खूब इस्तेमाल होला। बचपन क याद बा, खेते में से तोड़ के पाकल टमाटर खूब खाईंजा। ऊ टमाटर कटला पर दूर तक ओकर खुशबू आवे। लेकिन जबसे शहर में टमाटर क बेवजह इस्तेमाल बढ़ल बा, पता ना केतना तरह क टमाटर बोवे जाए लागल बा। अनेक तरह क कंपनी सब टमाटर बोवे के प्रोत्साहित करे लागल बाड़ी सं। ओके कटला पर खुशबू त दू, रसो मुश्किले से निकलेला। पकवला में गले में सबसे ज्यादा टाईम ऊहे लेला। शहर में देसी टमाटर बोलि के बेंचे वाला बेचे लं सं, लेकिन ओइसन पूरा हथेली भर क गोल आ खुशबू वाला टमाटर त खाली स्मृतिए में बनल रहि गईल बा। कोल्ड स्टोरेज में रखल टमाटर बारहों महीना उपलब्ध बा। टमाटर क प्यूरी डिब्बा में मिल जाई। काहें कि हर चीज में डालल जरूरी बा।
एइसहीं पिआज-लहसुन क इस्तेमाल बढ़ल बा। हर चीज में छौंक बघार लगावे में लहसुन-पिआज जरूरी मानल जाए लागल बा। ए प्रवृत्ति की चलते हालत ई हो गईल बा कि पिआज-टमाटर क भाव बढ़ि गइला पर सरकार पर दबाव बने लागेला। सरकार चिंतित हो उठेले। एक बार त पिआज की महंगाई की मुद्दा पर दिल्ली में सरकार बदल गईल।
पिआज आ टमाटर भी मौसमी सब्जी हई सं। पैदावार की मौसम में खइला पर इन्हंनी की स्वाद में मजा आवेला। कभी-कभार मौसम की मार से इन्हंनी की पैदावार आ आपूर्ति में कमी आ जाले। लेकिन एके लेके एतना हाहाकार मचवला क तर्क समझ में ना आवेला। आलू की कमी पर हाहाकार त समझल जा सकेला, काहें कि ई खाली सब्जी ना ह, बहुत सारा गरीब लोगन खातिर भोजन क काम करेला।
एक दिन घर में पूछलीं कि भाई, लौकी में टमाटर आ पिआज-लहसुन काहें डालेल लोग। जवाब मिलल कि टमाटर फायदा करेला। सेहत खातिर ठीक होला आ जेवना चीज में डालीं, स्वाद बढ़ जाला। एही तर्क की आधार पर खिचड़ी में भी टमाटर। समझ में ना आवेला कि फायदा त हर चीज कवनो ना कवनो रूप में करेला, लेकिन ओकरी इस्तेमाल क तरीका भी त होला। फायदा की नाम पर खिचड़ी में किशमिश आ खीर में लहसुन त ना डालल जा सकेला। लेकिन केके समझाईं।