Monday, December 3, 2012

हहरे हियरा हमार



धूप धान के पकावे
बेना पुरुआ डोलावे
कहीं तितिर बोले हो
हहरे हियरा हमार।

चंदा करे चौकीदारी
चारों ओर उंजियारी
जहां नींद में भरोसा
उड़ल निनिया हमार।

कबले रही ई नजारा
खेत गांव के सहारा
केहू पूछताटे हो
मचल मनवा में रार।

मुंह बाके दुनिया ताके
सबके दिल्ली फुसिलावे
कहे सुनीं सभे हो
गाईं खुलि के मंगलचार।

घीरल घटा घनघोर
सूझे नाहीं कवनो ओर
कबले बचल रही हो
ई धान के बखार।
हहरे हियरा हमार।

Tuesday, August 24, 2010

खिचड़ी में किशमिश

कुछ दिन पहिले तक टीवी पर देसी घी क एगो विज्ञापन देखावल जात रहे। ओ में संदेश रहे कि जबसे फलां घी खाया गांव का स्वाद ही भूल गया। लेकिन हमरा के महसूस होला कि शहर में कुछऊ खा लीं, गांव क स्वाद हमेशा याद रही। शहर क खान-पान गांव की तुलना में कुछ साफ-सुथरा, नफासत वाला भले हो जाव, जवन खुशबू आ स्वाद गांव की खानपान में मिलेला, ऊ शहर में शायदे कहीं मिले।
तमाम तरह क मसाला, डिब्बाबंद खाना आ भोजन सामग्री बनावे वाली कंपनी अपनी विज्ञापन में दावा करत देखल जा सकेली कि उनकी उत्पाद में गांव जइसन शुद्ध स्वाद बा। घी-तेल क कारोबार करे वाली कंपनीन की अलावा अब गांव की तर्ज पर रेस्तरां, पर्यटन स्थल पर मुसाफिरन के रूके-ठहरे क बंदोबस्त वगैरह भी होखे लागल बा। माटी क देवाल आ फूस की छत वाला घर, लालटेन में बल्ब लगाके पेड़ पर लटकावे क चलन, जमीन पर बइठा के खियावे आ गांव मतिन प्यार देखावे क कोशिश खूब होखे लागल बा।
खानपान में तेल-घी, चीनी-नमक, सब्जी-मसाला वगैरह क इस्तेमाल भी सेहत क ध्यान रख के होखे लागल बा। हर जगह फैट फ्री, शुगर फ्री ईहां तक कि गठिया, वायु विकार वगैरह में लाभदायक होखे क दावा करे वाला भोजन होटल-रेस्तरां में उपलब्ध करावे जाए लागल बा। अखबार-पत्रिका में सेहत आ खानपान क स्तंभ, बल्कि लगभग हर अखबार में सप्ताह में एक दिन पूरा पन्ना ए विषय से संबंधित रहे लागल बा। लोग भी सेहत के ले के पहिले से ज्यादा सजग हो गईल बा। शहर में कुछ ज्यादा सजगता बा।
जबसे शहर में रहे लागल बानी, चाहे शुद्धता क दावा करे वाली कवनो कंपनी क खाए-पीए क सामान खरीद लीं, गांव क स्वाद कतहीं ना मीलल। उल्टा हो ई गईल बा कि होटल आ रेस्तरां की देखादेखी दाल-सब्जी में अतार्किक ढंग से सामग्री क प्रयोग होखे लागल बा। कबो-कबो कोफ्त होखे लागे ले कि बरसात में गोभी, गाजर, हरा मटर आ सर्दी में भिंडी, करेला, नेनुआ खाइल इज्जत क बात समझे जाए लागल बा। एकरी पीछे मोट बुद्धि से एगो तर्क त ई समझ में आवेला कि मौसमी सब्जी की अपेक्षा बेमौसमी सब्जी महंगा मिलेले, त लोग समझेला कि ज्यादा पइसा खर्च क के खाए पर इज्जत आ स्वास्थ्य ज्यादा बढ़ी। शहर में दिखावा आ हवाबाजिए में लोग परेशान बा। अखबारो-पत्रिका सब में एही तरह की खानपान के बढ़ावा मिले लागल बा।
आयुर्वेद में कहल गइल बा कि फल आ सब्जी मौसमी खाएके चाही। बेमौसम क सब्जी आ फल शरीर में तरह-तरह क विकार पैदा करेलन सं। लेकिन के मानत बा।
खाली एतने ना, पकावे क तरीका भी एकदम बदल गईल बा। शहर में टमाटर आ प्याज जरूरी सब्जी में शुमार हो गईल बा। चाहे दाल होखे चाहे सब्जी, सलाद होखे चाहे चटनी, टमाटर त होखहीं के चाही। लौकी-कोहंड़ा, नेनुआ-करेला-भिंडी में भी टमाटर। गांव में त कबो ना खाएके मिलल। टमाटर जाड़ा क सब्जी ह। ओ समय एकर खूब इस्तेमाल होला। बचपन क याद बा, खेते में से तोड़ के पाकल टमाटर खूब खाईंजा। ऊ टमाटर कटला पर दूर तक ओकर खुशबू आवे। लेकिन जबसे शहर में टमाटर क बेवजह इस्तेमाल बढ़ल बा, पता ना केतना तरह क टमाटर बोवे जाए लागल बा। अनेक तरह क कंपनी सब टमाटर बोवे के प्रोत्साहित करे लागल बाड़ी सं। ओके कटला पर खुशबू त दू, रसो मुश्किले से निकलेला। पकवला में गले में सबसे ज्यादा टाईम ऊहे लेला। शहर में देसी टमाटर बोलि के बेंचे वाला बेचे लं सं, लेकिन ओइसन पूरा हथेली भर क गोल आ खुशबू वाला टमाटर त खाली स्मृतिए में बनल रहि गईल बा। कोल्ड स्टोरेज में रखल टमाटर बारहों महीना उपलब्ध बा। टमाटर क प्यूरी डिब्बा में मिल जाई। काहें कि हर चीज में डालल जरूरी बा।
एइसहीं पिआज-लहसुन क इस्तेमाल बढ़ल बा। हर चीज में छौंक बघार लगावे में लहसुन-पिआज जरूरी मानल जाए लागल बा। ए प्रवृत्ति की चलते हालत ई हो गईल बा कि पिआज-टमाटर क भाव बढ़ि गइला पर सरकार पर दबाव बने लागेला। सरकार चिंतित हो उठेले। एक बार त पिआज की महंगाई की मुद्दा पर दिल्ली में सरकार बदल गईल।
पिआज आ टमाटर भी मौसमी सब्जी हई सं। पैदावार की मौसम में खइला पर इन्हंनी की स्वाद में मजा आवेला। कभी-कभार मौसम की मार से इन्हंनी की पैदावार आ आपूर्ति में कमी आ जाले। लेकिन एके लेके एतना हाहाकार मचवला क तर्क समझ में ना आवेला। आलू की कमी पर हाहाकार त समझल जा सकेला, काहें कि ई खाली सब्जी ना ह, बहुत सारा गरीब लोगन खातिर भोजन क काम करेला।
एक दिन घर में पूछलीं कि भाई, लौकी में टमाटर आ पिआज-लहसुन काहें डालेल लोग। जवाब मिलल कि टमाटर फायदा करेला। सेहत खातिर ठीक होला आ जेवना चीज में डालीं, स्वाद बढ़ जाला। एही तर्क की आधार पर खिचड़ी में भी टमाटर। समझ में ना आवेला कि फायदा त हर चीज कवनो ना कवनो रूप में करेला, लेकिन ओकरी इस्तेमाल क तरीका भी त होला। फायदा की नाम पर खिचड़ी में किशमिश आ खीर में लहसुन त ना डालल जा सकेला। लेकिन केके समझाईं।

Saturday, April 24, 2010

गमला में गोभी
एक दिन एगो मित्र की घरे भोजन पर गइलीं। चाय-वाय पीयला की बाद ऊ अपनी छत पर ले गइलन। डीडीए क सबसे ऊपर वाला फ्लैट होखला की वजह से छत उनहीं की हिस्सा में रहे। बड़ा गर्व की साथ देखवलन की देखिए, लोग फूल-पत्ते लगाते हैं, हमने गमलों में सब्जियां उगा रखी हैं। देख के हमरो के अच्छा लागल। चालीस-पचास गो गमला में अलग-अलग किस्म क सब्जी। बैगन, टमाटर, गोभी, मिर्च, धनिया वगैरह। ऊ बतवलन कि ए गमलन की देखभाल खातिर एगो मालियो लगवले बाड़न। देख-सुन के बहुत अच्छा लागल।
कैंची से काट के ऊ ओमे से कुछ बैगन, टमाटर आ एगो फूल गोभी हमरो के दिहलन। फिर देर तक बखान करत रहलन कि आजकल जेवना तरह से बाजार में साग-सब्जी में रासायनिक खाद क इस्तेमाल होखे लागल बा ओसे तरह-तरह क बीमारी बढ़े लागल बाड़ी स। एइसन में अगर घर में सब्जी उगा के खाइल जाव त कुछ त बीमारी से बचल जा सकेला। तर्क त ठीके रहे, लेकिन उनकी घर से लवटत में मन में तरह-तरह क सवाल उठे लगलन स।

जेवना तरह से शहरीकरण की वजह से लगातार जगह क कमी होत जात बा, ओमे ईहे स्थिति आवे वाली बा। ट्यूबेल आ चांपाकल क आविष्कार भइल त कुआं तालाब क पानी पीए क चलन बंद हो गईल। तर्क दिहल गईल कि कुआं की पानी में तमाम तरह क गंदगी रहेले। ओके पीअला से तमाम तरह क बीमारी पैदा होले। त चांपाकल क चलन बढ़ि गईल। बाद में जे लोग कुछ संपन्न रहे ऊ चांपाकल की बोरिंग में मोटर लगवा लीहल। ट्यूबेल क चलन धड़ाधड़ बढ़े लागल। अब नतीजा ई बा कि जमीन की भीतर क पानी सूखे लागल बा। चाहे जेतना ताकतवर मोटर लगा लीहीं, पानी मिलल मुश्किल हो गईल बा। पानी खातिर मारा-मारी मच गईल बा। लोग पड़ोसी से कपरफोरौवल मचवले बा त एगो राज्य दूसरा से गुत्थमगुत्था भइल बा। देसनो की बीच में एगो की सीमा से दूसरा की सीमा में घुसे वाली नदीन की पानी के लेके तनातनी रहे लागल बा।
ओइसहीं लोग गांव छोड़ि के शहर की तरफ भागे लागल बा। शहर में रहे के जगह नइखे। सरकार तमाम कालोनी काटे लागल बा। एक की ऊपर एक घर। दस मंजिला, पंद्र-बीस मंजिला कॉलोनी बसे लागल बाड़ी स। दूर से देखीं त खाली घरे घर दिखाई देला। पेड़-पौधा कहीं छिप गईल बाड़न स। जहां जगह बचल बा ऊहें घर बनावे क योजना बने लागल बा। बड़ी-बड़ी कंपनी सब विशेष आर्थिक जोन की नाम पर गांव क गांव खरीदे लागल बाड़ी स। सब केहू खेत-बारी बेच के शहर की ओर भागल चाहता। खेती में मन कम्मे लोगन क लागता। जे खेती करता ऊ मजबूरी में करता। ना ओसे लागत भर क पईसा मिल पावता, ना ओमे रहे वालन क कवनो इज्जत बा। लेकिन शहर में अइला की बाद लोगन के बुझाता कि गांव में रहला क सुख का होला। ऊहां गरीबी जरूर बा, गंदगी जरूर बा, लेकिन हवा-पानी त शुद्ध मिल जाता। गमला में गोभी बोवला की पीछे कहीं न कहीं गांव क सुख पावे क ऊहे ललक देखल जा सकेले।

लेकिन चिंता ए बात कि का आवे वाला समय में खेती-किसानी सचमुच गमले में सिमट के रहि जाई। जेवना तरह से धड़ाधड़ बहुमंजिला इमारत खड़ा होत जात बाड़ी स आ धरती क सतह लगातार बजरी-सीमेंट से ढंकत जात बा, ओमे पेड़-पौधन खातिर जगह लगातार कम होत जात बा। एगो आंकड़ा की मुताबिक दुनिया की कुल आबादी वाली जगह क चालीस फीसद जमीन क सतह कंक्रीट से ढंक गईल बा। सड़क की किनारे सजावटी पौधा जरूर देखे के मिल जालन स, लेकिन फलदार पेड़ शहरीकरण की योजना में कहीं ना दिखाई देलन स। लोग गमला में बोनजाई लगा के पेड़ क सुख ले रहल बा। ओइसहीं का आवे वाला समय में सब्जी आ अनाज गमलवे में उगावे जाए लागी।

Saturday, March 27, 2010

मैं ना हम

भोजपुरी में ‘मैं’ शब्द नइखे। एकरी जगह ‘हम’ शब्द चलन में बा। भोजपुरिए काहें, मैथिली, मगही, बज्जिका में भी मैं की जगह पर हम शब्द क इस्तेमाल होला। सोचतानी कि ई कइसे भइल होई। भोजपुरी, मैथिली, मगही के भारोपीय परिवार से अलग संस्कार त मिलल नइखे। संस्कृत में मैं खातिर अहम् शब्द बा। हो सकेला ऊहे घिस-घिस के चाहे मुखसुख की वजह से भोजपुरी में आके हम हो गइल होखे। ईहे तर्क ज्यादा मजबूत मानल जा सकेला।
लेकिन जब बचपन क कुछ बात याद करीलां तो ध्यान जाला कि भोजपुरी में ना खाली ‘मैं’ की जगह ‘हम’ शब्द क इस्तेमाल होला, बल्कि एक तरह से एकर निषेध बा। बचपन में बड़-बुजुरुग लोग टोक देत रहलन कि ज्यादा ‘मय’ ठीक ना होला। ध्यान देईं सभे त संस्कृत क अहम् हिंदी में अहं क रूप ले लेले बा। अहं माने अहंकार। हिंदी में बोलल जाला कि ज्यादा अहं कौनो रूप में ठीक ना होला। ओइसहीं भोजपुरी, मैथिली, मगहियो में ‘मैं’ क निषेध भइल होई। ईहे वजह बा कि ई सब भाषा बोले वाला लोग जब हिंदियो में बातचीत करेला त व्यक्तिवाचक एकवचन ‘मैं’ की जगह हम क प्रयोग करेला। हालांकि ए पर कई लोग के मजाको सुने के पड़ेला।
कुछ साल पहिले क बात ह। सबसे पहिले जवनी संगठन में हम काम करत रहलीं, ऊहां कई लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश क लोग काम करत रहे। एक दिन ओही में से एक जना अपनी अधिकारी से बातचीत करत-करत बार-बार बोलस, हम गए थे, हमने वहां ये देखा, हमने वो किया। त अधिकारी टोक दिहलन, आप कितने लोग थे। ऊ हिचकलन। बोललन, सर हम अकेले थे। त अधिकारी कहलन, तो बार-बार हम क्यों बोल रहे हो, मैं क्यों नहीं कहते। ऊ बस एतने कहि सकत रहलन कि क्या करें सर, बचपन से ऐसा बोलने की आदत पड़ी हुई है।

भोजपुरी में खाली बोली की स्तर पर मैं की जगह हम बोले के चलन नइखे। जे पुरानी पीढ़ी क लोग बा ऊ अक्सर अपनी कवनो चीज के सामने वाला का बतावत सुनल जाला। पूछीं कि ई लइका केकर ह, त जवाब मिली आपे क ह। चाहे ज्यादा होई त केहू कहि दी कि आपे क भतीजा ह। कवनो बढ़िया काम होई त श्रेय दूसरा के देबे क रिवाज बा। कवनो गलती हो जाई त स्वीकार कइला में कवनो हिचक नइखे। बल्कि कई बार त दूसरो की गलती क वजह खुदे के बता देला लोग।

लेकिन समय क स्वभाव ह, बदल जाला। त पुरान समय बदल गईल। नया जमाना में अपना के के कहो, दूसरो की बढ़िया काम क श्रेय खुदे लेबे क कोशिश देखे जाए लागल बा। कवनो बढ़िया काम हो जाई त लप से आगे बढ़ि के बोले वाला खई गो लोग हो जइहें कि हम कइली हं। हम ना कोशिश कइले रहितीं त भइले ना रहित। केहू कहि दी कि सबसे पहिले सुझाव त हमहीं देले रहलीं।
दरअसल, ई प्रवृत्ति बाजार आ व्यवसाय की प्रसार की वजह से तेजी से फइलल बिया। कुछ दिन पहिले एगो लइका मिलल। पड़ोसे में रहेला। एमबीए क लिहला की बाद कवनो कंपनी में इंटरव्यू देबे गइल रहे। लवट के आइल त पुछलीं कि का-का सवाल पूछले रहल हं स, त ऊ बतवलस कि सबसे पहिले पूछा गया कि अपने बारे में बताओ। तुम किस तरह दूसरों से अलग हो। अपनी कीमत लगाओ। सुन के हम दंग रहि गइलीं।
जेवना समाज में ए तरह क सवाल पूछे जाए लागल बा, ऊहां ‘मैं’ क चलन त बढ़बे करी। अहंकार क भाव त बढ़बे करी। जहां भी अपना के दूसरा से बेहतर साबित करे क होड़ होई ऊहां मैं होई।

ई प्रवृत्ति हम सब की समाज में दिखइयो देबे लागल बा। मैनेजमेंट क के जेवन लइका-बच्चा आवत बाड़न सं ऊ खूब मोट-मोट तनखाहि पर निजी कंपनियन में काम पा जात बाड़न सं। उहां हर समय अपना के आ अपना काम के बेहतर साबित करे क दबाव रहता। एइसन में ऊ सब हर काम क श्रेय लेटे की मकसद से दूसरो की काम के आपन बता के चाहे अपनी काम के अपने विचार के हर समय बड़ा बता के खुद के बड़ा साबित करेके कोशिश करत देखत जात बाड़न सं। दूसरा के कौनो काम क श्रेय देबे क चलन खतम होत जात बा।
बूढ़-पुरनिया लोगन के ए प्रवृत्ति पर कोफ्त होखल स्वाभाविक बा। लेकिन अगर आज की पीढ़ी क लइका-बच्चा सब ‘मैं’ की जगह ‘हम’ बोले लगिहं सं, अपनी काम क श्रेय दूसरा के देबे लगिहं सं त उन्हंनी क तरक्की बाधित होई।
हम समझि नइखीं पावत कि ए प्रवृत्ति के समय क जरूरत समझीं कि विकृति!

Saturday, March 20, 2010

शुरू में-

गांव-घर से दूर रहत करीब सत्ताईस साल हो गईल। अक्सर कौनो ना कौनो बात पर ऊहां की लोगन की बारे में, रहन-सहन, बात-व्यवहार, हंसी-ठट्ठा क याद आवत रहेले। खासकर, अपनी गांव की लग्गीं चट्टी पर बईठ के लोग जेवनी तरह से बात करेला आ जेवनी-जेवनी तरह से बात करेला- ओमे राजनीति से लेके गांव-गिरांव की समस्या तक पर जेवनी तरह से बिना कवनो लाग-लपेट के बात होत रहेले, लोग केहू क मजाक उड़वला से बाज ना आवेलन- ऊ सब सुने क मन बरोबर करत रहेला। लेकिन दिल्ली की अंग्रेजी माहौल में रहत-रहत भोजपुरी बोले क मौका कमे मिल पावेला। जे भोजपुरी भाषी बा ऊहो अंगरेजिए बोले क कोशिश करेला।
ईहे कुल देखि या सोच के मन भईल की जवनी भाषा में लिखे, पढ़े, बोले क संस्कार मिलल, कठोर से कठोर मजाक करे आ सुने क आदत पड़ल ओ भाषा खातिर कुछ करेके चाही। हिंदी में लिखल-पढ़ल त चलते रहेला। लेकिन जेवनी भाषा से ई सब क संस्कार मिलल ओ भाषा में का कइलीं। ई सवाल काफी समय से मन में उठत रहे। त तय कइलीं कि भोजपुरी ब्लॉग खोलल जाव। नाम चट्टी से बेहतर का हो सकेला।
हमरी इलाका में चट्टी ओ जगह के कहल जाला जहां बस स्टैंड होला आ दू-चार गो चाय-पान-किराना वगैरह क दुकान खुलल रहेली सं। लोग दिन भर ऊहां जांस चाहे ना जांस, सांझ खा जरूर जुटेला। चाय की दुकान पर बइठ के देर-देर ले गलचउरन होत रहेले।
ओइसने चट्टी बसावे की इरादा से ई भोजपुरी क ब्लॉग खोलतानी। आप सब भी आईं, बइठीं, गलचउरन करीं।