Saturday, March 27, 2010

मैं ना हम

भोजपुरी में ‘मैं’ शब्द नइखे। एकरी जगह ‘हम’ शब्द चलन में बा। भोजपुरिए काहें, मैथिली, मगही, बज्जिका में भी मैं की जगह पर हम शब्द क इस्तेमाल होला। सोचतानी कि ई कइसे भइल होई। भोजपुरी, मैथिली, मगही के भारोपीय परिवार से अलग संस्कार त मिलल नइखे। संस्कृत में मैं खातिर अहम् शब्द बा। हो सकेला ऊहे घिस-घिस के चाहे मुखसुख की वजह से भोजपुरी में आके हम हो गइल होखे। ईहे तर्क ज्यादा मजबूत मानल जा सकेला।
लेकिन जब बचपन क कुछ बात याद करीलां तो ध्यान जाला कि भोजपुरी में ना खाली ‘मैं’ की जगह ‘हम’ शब्द क इस्तेमाल होला, बल्कि एक तरह से एकर निषेध बा। बचपन में बड़-बुजुरुग लोग टोक देत रहलन कि ज्यादा ‘मय’ ठीक ना होला। ध्यान देईं सभे त संस्कृत क अहम् हिंदी में अहं क रूप ले लेले बा। अहं माने अहंकार। हिंदी में बोलल जाला कि ज्यादा अहं कौनो रूप में ठीक ना होला। ओइसहीं भोजपुरी, मैथिली, मगहियो में ‘मैं’ क निषेध भइल होई। ईहे वजह बा कि ई सब भाषा बोले वाला लोग जब हिंदियो में बातचीत करेला त व्यक्तिवाचक एकवचन ‘मैं’ की जगह हम क प्रयोग करेला। हालांकि ए पर कई लोग के मजाको सुने के पड़ेला।
कुछ साल पहिले क बात ह। सबसे पहिले जवनी संगठन में हम काम करत रहलीं, ऊहां कई लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश क लोग काम करत रहे। एक दिन ओही में से एक जना अपनी अधिकारी से बातचीत करत-करत बार-बार बोलस, हम गए थे, हमने वहां ये देखा, हमने वो किया। त अधिकारी टोक दिहलन, आप कितने लोग थे। ऊ हिचकलन। बोललन, सर हम अकेले थे। त अधिकारी कहलन, तो बार-बार हम क्यों बोल रहे हो, मैं क्यों नहीं कहते। ऊ बस एतने कहि सकत रहलन कि क्या करें सर, बचपन से ऐसा बोलने की आदत पड़ी हुई है।

भोजपुरी में खाली बोली की स्तर पर मैं की जगह हम बोले के चलन नइखे। जे पुरानी पीढ़ी क लोग बा ऊ अक्सर अपनी कवनो चीज के सामने वाला का बतावत सुनल जाला। पूछीं कि ई लइका केकर ह, त जवाब मिली आपे क ह। चाहे ज्यादा होई त केहू कहि दी कि आपे क भतीजा ह। कवनो बढ़िया काम होई त श्रेय दूसरा के देबे क रिवाज बा। कवनो गलती हो जाई त स्वीकार कइला में कवनो हिचक नइखे। बल्कि कई बार त दूसरो की गलती क वजह खुदे के बता देला लोग।

लेकिन समय क स्वभाव ह, बदल जाला। त पुरान समय बदल गईल। नया जमाना में अपना के के कहो, दूसरो की बढ़िया काम क श्रेय खुदे लेबे क कोशिश देखे जाए लागल बा। कवनो बढ़िया काम हो जाई त लप से आगे बढ़ि के बोले वाला खई गो लोग हो जइहें कि हम कइली हं। हम ना कोशिश कइले रहितीं त भइले ना रहित। केहू कहि दी कि सबसे पहिले सुझाव त हमहीं देले रहलीं।
दरअसल, ई प्रवृत्ति बाजार आ व्यवसाय की प्रसार की वजह से तेजी से फइलल बिया। कुछ दिन पहिले एगो लइका मिलल। पड़ोसे में रहेला। एमबीए क लिहला की बाद कवनो कंपनी में इंटरव्यू देबे गइल रहे। लवट के आइल त पुछलीं कि का-का सवाल पूछले रहल हं स, त ऊ बतवलस कि सबसे पहिले पूछा गया कि अपने बारे में बताओ। तुम किस तरह दूसरों से अलग हो। अपनी कीमत लगाओ। सुन के हम दंग रहि गइलीं।
जेवना समाज में ए तरह क सवाल पूछे जाए लागल बा, ऊहां ‘मैं’ क चलन त बढ़बे करी। अहंकार क भाव त बढ़बे करी। जहां भी अपना के दूसरा से बेहतर साबित करे क होड़ होई ऊहां मैं होई।

ई प्रवृत्ति हम सब की समाज में दिखइयो देबे लागल बा। मैनेजमेंट क के जेवन लइका-बच्चा आवत बाड़न सं ऊ खूब मोट-मोट तनखाहि पर निजी कंपनियन में काम पा जात बाड़न सं। उहां हर समय अपना के आ अपना काम के बेहतर साबित करे क दबाव रहता। एइसन में ऊ सब हर काम क श्रेय लेटे की मकसद से दूसरो की काम के आपन बता के चाहे अपनी काम के अपने विचार के हर समय बड़ा बता के खुद के बड़ा साबित करेके कोशिश करत देखत जात बाड़न सं। दूसरा के कौनो काम क श्रेय देबे क चलन खतम होत जात बा।
बूढ़-पुरनिया लोगन के ए प्रवृत्ति पर कोफ्त होखल स्वाभाविक बा। लेकिन अगर आज की पीढ़ी क लइका-बच्चा सब ‘मैं’ की जगह ‘हम’ बोले लगिहं सं, अपनी काम क श्रेय दूसरा के देबे लगिहं सं त उन्हंनी क तरक्की बाधित होई।
हम समझि नइखीं पावत कि ए प्रवृत्ति के समय क जरूरत समझीं कि विकृति!

Saturday, March 20, 2010

शुरू में-

गांव-घर से दूर रहत करीब सत्ताईस साल हो गईल। अक्सर कौनो ना कौनो बात पर ऊहां की लोगन की बारे में, रहन-सहन, बात-व्यवहार, हंसी-ठट्ठा क याद आवत रहेले। खासकर, अपनी गांव की लग्गीं चट्टी पर बईठ के लोग जेवनी तरह से बात करेला आ जेवनी-जेवनी तरह से बात करेला- ओमे राजनीति से लेके गांव-गिरांव की समस्या तक पर जेवनी तरह से बिना कवनो लाग-लपेट के बात होत रहेले, लोग केहू क मजाक उड़वला से बाज ना आवेलन- ऊ सब सुने क मन बरोबर करत रहेला। लेकिन दिल्ली की अंग्रेजी माहौल में रहत-रहत भोजपुरी बोले क मौका कमे मिल पावेला। जे भोजपुरी भाषी बा ऊहो अंगरेजिए बोले क कोशिश करेला।
ईहे कुल देखि या सोच के मन भईल की जवनी भाषा में लिखे, पढ़े, बोले क संस्कार मिलल, कठोर से कठोर मजाक करे आ सुने क आदत पड़ल ओ भाषा खातिर कुछ करेके चाही। हिंदी में लिखल-पढ़ल त चलते रहेला। लेकिन जेवनी भाषा से ई सब क संस्कार मिलल ओ भाषा में का कइलीं। ई सवाल काफी समय से मन में उठत रहे। त तय कइलीं कि भोजपुरी ब्लॉग खोलल जाव। नाम चट्टी से बेहतर का हो सकेला।
हमरी इलाका में चट्टी ओ जगह के कहल जाला जहां बस स्टैंड होला आ दू-चार गो चाय-पान-किराना वगैरह क दुकान खुलल रहेली सं। लोग दिन भर ऊहां जांस चाहे ना जांस, सांझ खा जरूर जुटेला। चाय की दुकान पर बइठ के देर-देर ले गलचउरन होत रहेले।
ओइसने चट्टी बसावे की इरादा से ई भोजपुरी क ब्लॉग खोलतानी। आप सब भी आईं, बइठीं, गलचउरन करीं।